Saturday, December 18, 2010

लड़ना है भीतर बाहर पसरते "सी" दैत्य से- "आलोक तोमर ने कैंसर को जकड लिया"


वरिष्ठ दिग्गज पत्रकार "आलोक तोमर" जब कैंसर की गिरफ्त में आये तो लगा की जैसे प्रकृति ने एक जीवट से भरपूर व्यक्तित्व को घेरकर हराने की कोई साजिश रच ली है.लेकिन कहना ही पड़ेगा की अपने मिजाज के अनुरूप यहाँ भी आलोक अपने नैसर्गिक तौर पर चुन लिए गए कार्य का बखूबी निष्पादन करते नजर आते हैं.आलोक तोमर से भगवान् बचाए कहने वाले कई लोगों के मुंह से जब सुना की आलोक तोमर को भगवान् बचाए तो सहसा ही हमेशा मानों किसी भी व्यक्तित्व से न प्रभावित होने का संकल्प लिए (मानों संदिग्धता की शपथ लिए) मन ने व्यक्तित्व के भीतर झाँकने की जिज्ञासा के वशीभूत समझना शुरू किया. 


कारण दो थे पहला सहानुभूति वश उत्पन्न सामान्य जिज्ञासा दूसरा "सी" नाम के दैत्य जिसके बाबत थोड़ी समझ, अम्मां (मेरी माँ ) और उनके साथ हम पांचो भाई बहिन और पूरे परिवार के इस दैत्य से और अन्य झक्क सफ़ेद कोट पहने जुड़े हुए शैतानों से झूझकर हारने के बाद पिछले कुछ सालों में हुई इससे जुड़े तमाम पैतरों (विसंगतियों) से पुरानी पहचान होने की वजह से उत्पन्न डर, और उसके अतिरिक्त  की कहीं सिगरेट की वजह से तो नहीं...फिर सोचा आलोक जिसे कोई न पकड़ सका उसे पकड़ लिया, और करीब से जाना तो पता चला की इस दैत्य को और इससे जुड़े सारे छोटे मोटे धन्देबाज शैतानों को "फितरतन" आलोक तोमर ने जकड लिया. साथ ही समझ में आया की मीडिया में ये खबर तो है पर मीडिया नुक्कड़ पर ये यूँ होनी चाहिए "आलोक तोमर ने कैंसर को जकड लिया"
नीचे दिया हुआ आलेख ज्यों का त्यों आलोक की समाचार एजेंसी डेटलाइन इंडिया से साभार लिया गया है.
उद्देश्य कई है
पहला अधिक से अधिक लोगों तक अंग्रेजी के अक्षर "सी" नाम के इस दैत्य के साथ इससे जुड़े सैकड़ों अन्य शैतानी ताकतों का पर्दाफाश करने की एक छोटी सी कोशिश.
दूसरा उन्मुक्त कंठ से "आलोक" के "जीवट" को सलाम ठोंकना जिसके लेखन ने बिना दूरगामी परिणामों की परवाह किये रहस्यों का उद्घाटन जब भी किया तभी विवादों की कड़ियों को जन्म दिया और स्याह या सफ़ेद इस आंकलन के झंझट से बचने हेतु सैकड़ों बार ऐसी परिस्थति से किनारा करने के सिवा कोई वैकल्पिक चुनाव सामने नजर नहीं आया. 
तीसरा माँ की कैंसर से मृत्यु के बाद मन ही मन में लिए संकल्प (जिसे आम तौर पर पारिवारिक, और व्यक्तिगत जिम्मेदारियों के दुश्चक्र में लगभग भूल जाता हूँ ) के लिए "कुछ" तो कर सकूँ इस अपराध बोध से मन को थोडा हलका करना है की कम से कम इतना तो कर ही सका, आगे प्रभु इच्छा "जाहि बिधि राखे, राम, ताहि बिधि रहिये"
चौथा ये समझने की कोशिश को आगे बढ़ाना की कैसे मात्र थोड़े से समय ये दैत्य प्रगट होता है और इसके साथ ही अन्य सैकड़ों शैतान जो व्यक्ति और उससे जुड़े लोगों की हर एक सांस का दोहन करने में समर्थ है.
पांचवां और अंतिम एक नन्ही सी कोशिश उस दिशा में कदम उठाने की जिसमें पहले से ही सैकड़ों चारासाज और गम गुसार हैं पर हजारों और की जरूरत है.
वाह आलोक वाह, मान गए प्रभु अपने काम को क्या बखूबी अंजाम दिया है...नीचे पढ़ें 
डेटलाइन इंडिया पर आलोक का लिखा ये लेख जो कैंसर जैसे दैत्य के मुंह में भी रिपोर्टिंग की विधा का समाज के लिए बखूबी किया गया एक कर्तव्य निष्पादन से इतर कुछ नहीं है.


आलोक तोमर: डेटलाइन इंडिया:साभार 

मौत की भी एक सीमा रेखा होती है : कैंसर एक ऐसा नाम हैं जिसे अब भी जीवन का पूर्ण विराम माना जाता है। होने को कुछ नया नहीं होता। शरीर के कुछ अंगो की कोशिकाएं बहुत तेजी से विभाजन शुरू कर देती है। विभाजन पहले भी होता था लेकिन पुरानी कोशिकाओ के मरने और नई बनने के बीच एक संतुलन रहता है जिसके बिगड़ जाने का नाम ही कैंसर है। क्या आपको आश्चर्य नहीं होता कि जहां एचआईवी को खत्म करने वाली वैक्सीन पर अंतिम प्रयोग हो रहे हैं और एचआईवी के निषेध के लिए बहुत सार उपाय हो चुके हैं, वहां आयुर्वेद के जमाने से कर्कट रोग के नाम से परिचित इस बीमारी का आज तक कोई पक्का निदान नहीं तैयार हो पाया।
हर साल बहुत सारी प्रयोगशालाएं दुनिया के कोने कोने में करोड़ों डॉलर खर्च कर के कैसर से निपटने के उपाय खोजती रहती है और उपाय है कि मिलता नहीं। मानव चंद्रमा तक पहुंच गया मगर अपनी काया के रहस्य पकड़ में नहीं आए। यह मानवीय मजबूरी नहीं बल्कि आपराधिक लालच का गणित है जिसकी वजह से यह अमानवीय भूल हो रही है। तमाम कहानियां हैं और उन पर बड़े महंगे महंगे सेमिनार दुनिया भर में होते रहते है। कैंसर के नाम पर दुकान चलाने वाले भी कम नहीं है। बल्कि कहना चाहिए कि दुकान चलाने वाले ही ज्यादा है। दुनिया की पता नहीं पर हमारे देश में तो एक डॉक्टर बाकायदा कीमत ले कर कैंसर के एक मरीज को दूसरे डॉक्टर को बाकायदा बेचता है। यही एक बीमारी है जिसमें मुनाफा ही मुनाफा है और कतई हर्षद मेहता, अब्दुल करीम तेलगी और केतन पारिख बनने की जरूरत नहीं है। बस मौत का डर बेचते रहिए।
बगैर कैसर के अस्पतालों से गुजरे आप नहीं जान सकते कि आफत असल में कितनी बड़ी है। मैं अक्सर अपने लिए ही यात्राएं करता रहता हूं और मित्र डॉक्टरो की वजह से यथासंभव शोषण से बचा रहता हूं फिर भी कैंसर ने मेरी नजर नहीं छीन ली है। इसलिए साफ दिखाई पड़ता है कि इंसान के जीवन के नाम पर किस तरह का बेशर्म कारोबार किया जा रहा है। कीमोथैरेपी कैंसर का एक और शायद एक मात्र दवाई वाला उपाय है। दवाईयां आम तौर पर पारे से ले कर विभिन्न खनिजों और तौर पर जहरीली मानी जाने वाली दवाईयों का समुच्चय होती हैं और डॉक्टर जानते हैं कि कौन सी दवाई किस तरह के और किस चरण के कैंसर में काम करेगी। शरीर पर विलोम असर पड़ते जरूर हैं मगर उन पर भी काबू किया जा सकता है। जहां तक चिकित्सा शास्त्र की बात हैं तो यह सबसे बड़ा उपाय उपलब्ध है।
मगर आप कैंसर का इलाज कर सकते हैं, लालच का नहीं। किसी भी अस्पताल के कैंसर वार्ड के आस पास टहल कर आइए, आपको अपने होने पर संकोच होने लगेगा। एक औसत दवाई का दाम है 25 हजार रुपए जो आम तौर पर हरेक इक्कीसवें दिन लेनी पड़ती है। अपने देश में कितने लोग हैं जो यह खर्चा छाती पर बोझ लिए कर सकते है। लोग घर बेचते हैं, खेती बेचते हैं, धर्मशालाओं में बारी बारी से दस और पंद्रह दिन काटते हैं, आधा पेट खाते हैं और अपनों के इलाज में सब कुछ लगा देते हैं। सिर्फ खाने वाली टेबलेट साढ़े तीन सौ रुपए की एक आती है और कीमोथैरेपी से जो श्वेत रक्त कोशिकाएं मरती हैं उन्हें बचाने वाला इंजेक्शन पांच हजार रुपए का है और एक कीमोथेरेपी पर दो इंजेक्शन लगाने पड़ते है। इलाज के दौरान खुराक भी पक्की रखनी पड़ती है और वह सस्ती नहीं होती।
कैंसर की दवा बनाने वाली कंपनियों से ज्यादा मुनाफा तो शायद सोना या हीरा पन्ना निकालने वाली कंपनियां भी नहीं कमाती होगी। जिस दवा का छपा हुआ मुल्य दस हजार रुपए होता है उसकी असली लागत 400 रुपए से ज्यादा नहीं होती। ढाई लाख रुपए में कीमोथैरेपी की जो खुराक मिलती हैं और जिसे कल्याण के नाम पर बने अस्पताल भी बेचते हैं उसकी असली कीमत पांच हजार रुपए होती है। इसीलिए कैंसर की दवा बनाने वाली कंपनियां कैंसर के डॉक्टरों को दुनिया के हवाई टिकट दे कर निहाल करते रहते है।
हमारे देश में गरीबी की सीमा रेखा के नीचे लगभग आधे से ज्यादा लोग रहते है। गरीबी मिटाने के लिए बहुत उपाय किए जा रहे हैं लेकिन जो लोग गरीबी की वजह से मौत की रेखा के भी नीचे चले जाते हैं, जिनके पास मर रहे अपने लोगों को बचाने का कोई उपाय नहीं होता, उनकी तरफ क्या किसी की नजर जाती है। दवा माफिया दुनिया का सबसे संगठित, सबसे मजबूर करने वाला और सबसे घृणित माफिया है। हमारे देश में साहबों की बिजली और उनकी कारों के पेट्रोल सबसिडी मिल जाती है लेकिन जान बचाने की दवाएं पहुंच से बाहर ही रहती है। आप किस किस का क्या क्या बिगाड़ेंगे?
दुनिया मे कैंसर का इलाज खोजने के लिए उसी आमनवीय कारोबार में से पैसा खर्च किया जाता है, जिसमें इलाज को दुर्लभ बना दिया गया है। इस साल के औसत अंदाजे के अनुसार बाकी बीमारियों को छोड़ दिया जाए, हालांकि गड़बड़ वहां भी कम नहीं हैं, तो भी सिर्फ कैंसर की दवाईयों का सालाना धंधा आठ खरब डॉलर का है। आप आठ पर शून्य लगाते लगाते थक जाएंगे। यह हमारे और आपके जीवन को शून्य कर देने की कीमत है।
सीधी कहानी यह है कि जिन कोशिकाओ में अचानक तेजी से विभाजन होने लगता है वह डीएनए के उत्प्रेरक के बगैर नहीं हो सकता। जब डीएनए को नियंत्रित कर के हम समानांतर जीवन बनाने का सपना देख रहे हैं तो जाहिर है कि डीएनए के रहस्य और पहेलिया हमारी पकड़ में आ चुकी है। अपनी मुंबई के एक वैज्ञानिक ने तो डीएनए का कैंसर वाला कोड भी तोड़ लिया है। मगर जब इस वैज्ञानिक को भारत की चिकित्सा अनुसंधान परिषद मदद देने को राजी नहीं है तो लोगों की मौत पर मुनाफा वसूल करने वालों से मदद की क्या उम्मीद की जाए?
कुछ संस्थाएं हैं जो गरीब कैंसर पीड़ितों की मदद करती हैं। इनमें कुछ एनजीओ हैं और कुछ जनता से चंदा ले कर काम चलाती है। जाहिर है कि इनके पास साधन सीमित हैं और आठ खरब डॉलर के विश्वव्यापी बाजार का सामना करने की तो इनमें कतई हिम्मत नहीं है। ज्यादा से ज्यादा ये दवाईयां दे सकती हैं लेकिन कैंसर से जुड़ी दूसरी भव बाधाओं का निदान तो इनके पास भी कहां है? मैं फिर कह रहा हूं कि कैंसर का शिकार होने के बावजूद लड़ने के लिए मैं तैयार हूं लेकिन जब सवाल अपनो के अंत का आता है तो लोग सारी लड़ाईयां भूल जाते हैं और परमात्मा से ले कर लोभी आत्माओं तक से समझौता कर लेते हैं। यह मेडीकल आतंकवाद खत्म करना जरूरी है और इसके पहले इसके सारे आयामों को पहचानना जरूरी है।
वर्तमान में यानी १३, २०१० की स्थिति जो की यशवंत ने भड़ास पर छापी वो ज्यों की त्यों इस प्रकार है:साभार:bhadas4media.com 


आलोक तोमर का कैंसर फैला, बत्रा में भर्ती
देश के जाने-माने पत्रकार की तबीयत ज्यादा खराब हो गई है. गले और फेफड़ का कैंसर कीमीयोथिरेपी के बावजूद कम होने की बजाय बढ़ गया है. इस कारण डाक्टरों ने उन्हें एडमिट होकर लगातार पांच दिन तक कीमीयोथिरेपी कराने की सलाह दी है. इस कारण आलोक तोमर आजकल दिल्ली के साकेत स्थित बत्रा हास्पिटल में भर्ती हैं और आज उनके कीमीयोथिरेपी का पांचवां दिन है. डाक्टरों ने उनके शरीर का जब पूरा चेकअप कराया तो मालूम चला कि उन पर अब तक की गई कीमीयोथिरेपी का कोई असर नहीं हुआ है. कैंसर ने विस्तार ले लिया है. अब उनकी लगातार कीमीयोथिरेपी की जा रही है, जिसका आज पांचवां दिन है. लगातार कीमीयोथिरेपी का साइड इफेक्ट ये हुआ है कि उनका शरीर सूजकर दोगुना हो चुका है, शरीर बेहद काला नजर आने लगा है. सिर के बाल काफी गिर गए हैं.
बावजूद इसके यह जीवट पत्रकार मौत को मात देने का ऐलान करते हुए डेटलाइन इंडिया और सीएनईबी के काम को हास्पिटल से ही निपटा रहा है. आलोक तोमर से मिलने बत्रा हास्पिटल सीएनईबी के सीओओ और एडिटर इन चीफ अनुरंजन झा और भड़ास4मीडिया के संपादक यशवंत सिंह पहुंचे. कई घंटे की बातचीत के दौरान जब आलोक तोमर के सामने प्रस्ताव रखा गया कि उनकी आर्थिक मदद के लिए एक कोष बनाया जाना चाहिए तो उन्होंने व्यंग्य में कहा कि रहने दो, इस देश में ''मदद कोष'' बनाने की परंपरा नहीं है, बाद में ''स्मृति कोष'' बना लेना. अपने समय और परिवेश के इस जांबाज पत्रकार ने लाखों रुपये इलाज पर खर्च होने के बावजूद किसी से मदद के लिए अभी तक मुंह नहीं खोला है.
आलोक तोमर की पत्नी सुप्रिया राय कहती हैं कि मना करने के बावजूद ये अस्पताल के बेड से ही कीमीयोथिरेपी के दौरान ही लैपटाप से डेटलाइन इंडिया और सीएनईबी के काम संचालित कर रहे हैं. सुप्रिया के मुताबिक यहां के डाक्टर भी इस बात से आश्चर्यचकित हैं कि पिछले दिनों जितनी भी कीमीयोथिरेपी की गई, उसका अब तक कोई असर नहीं हुआ है. आलोक तोमर को सीएनईबी के चीफ अनुरंजन झा ने आश्वस्त किया कि कंपनी उनकी पूरी आर्थिक मदद करेगी और इलाज के दौरान उनकी सेवाओं पर कोई असर नहीं पड़ेगा. आलोक तोमर ने बातचीत में कहा कि उन्हें दुख है कि जिन लोगों को वे अपना मानते रहे हैं, उनमें से कई लोगों ने इस मौके पर एसएमएस भेज कर भी हालचाल लेने की कोशिश नहीं की.
अपील: कृपया इन दोनों लेखों को अधिक से अधिक लोगों को पढ़ायें और "सी" नाम के इस दैत्य के साथ इससे जुड़े सैकड़ों अन्य शैतानी ताकतों का पर्दाफाश करने की इस छोटी सी कोशिश में अपना योगदान दें.

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