Friday, September 10, 2010

उत्तराखंड का दधीचि हेम...


No news is good News की तर्ज पर अखबार और बुद्धू बक्से को  पुरा प्राचीन काल की नगरवधुओं की भांति  मात्र जितना जरूरी हो, अपने हित हेतु काम लायक इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति, और जिम्मेदारियों के पालन हेतु अधिकाधिक धन कमाने की होड़ में तन मन को झोंक डालने की सालों की आदत ने जीवन को लगभग संवेदना शून्य कर दिया था, सिवाय सही कान मिल जाने पर, बेसुरा लाग अलापने और बुद्धिजीवी होने का स्वांग रचने वाले सन्दर्भों को छोड़ दिया जाये तो... 
आइसा से जमीनी स्तर पर जुड़कर पिथौरागढ़ के पहले से मौजूद रंगों में एक और :चटख" रंग का इजाफा करने वाले युवा विचार प्रवर्तक एवं वामपंथी पत्रकार साथी हेम पाण्डेय के आदिलाबाद में माओवादी नेता आजाद के साथ मारे जाने की खबर सुनकर हर कोई स्तब्ध रह गया. प्रतिक्रिया की बात मन में आई और चली गयी, समझ ही नहीं आया की क्या कहा जाए, कितना तो पहले ही कहा जा चुका है, सुना जा चुका है !!! आखिर कहने सुनने का क्या तात्पर्य है, जब न कोई सुनता है, न सुन रहा है, न ही कोई मामले की गहराई समझ रहा है, और कहने वालों का क्या कहते रहो, कितने आये और चले गए, ढ़ाक  के तीन पात, यही सोच कर हमेशा की तरह चुप रह कर भीतर ही भीतर घुटता रहा...लेकिन आज जब 
भड़ास पर विजय वर्धन उप्रेती का लिखा हेम के बाबत लिखे प्रसंगों की श्रधांजलि स्वरुप आलेख पढ़ा तो मन भर आया... बेटा रो मत, वो उत्तराखंड का भगत सिंह है

और पुराने दिनों की याद ताजा हो गयी. इतने पर भी कुछ न लिखना, कुछ न कहना बाजारवाद के दिमाग पर नहीं दिल पर भी हावी होने का द्योतक होगा जो जीते जी मंजूर नहीं हो सकता...

हालांकि एक नए मीडिया प्रोजेक्ट पर काम करने हेतु पत्नी और बच्चों को बाहर ले जाने से मना कर अपने कंप्यूटर पर कुछ व्यवसायिक हित साधने हेतु बैठा था, किन्तु काम करने का मन ही नहीं हुआ...और लगा सालों पहले अपने मित्रों से नहीं मन ही मन (हेम...एक व्यक्ति नहीं विचार)  से बात कर रहा हूँ, और उसे समझाने हेतु बचपन से ही हार्ड कोर कम्युनिस्ट और निसंदेह दक्षिणपंथी संस्कारों की सहजीविता वाले विपरीत ध्रुवों के एक ही परिवार में एक साथ मौजूद होने से समय से पहले ही वयस्क हो चुकी व्यवहारिक सोच में मित्रों को समझाता हुआ और समझता हुआ लगा मैं अभी भी पूरा मृत नहीं हुआ हूँ, मृतप्राय हूँ... और स्मृतियाँ हावी होने लगीं...उन दिनों की... और मन ही मन बोलने लगा 
मेरे कुछ मित्र हैं , हाँ मित्र हैं तभी तो उन्हें समझाता हूँ, 
ये क्रांति की बातें छोड़ो कुछ करो मैं बताता हूँ!!!
इस देश से गरीबी,भूख बेरोजगारी तो नहीं, तुम मिट जाओगे 
सपनों का भारत बनते...बनते तुम सपना हो जाओगे!!! 
तुम्हारे लहू का (लाल) रंग, इनके दिमागों को रोशन न कर पायेगा,
बस इतना ही हो सकता है, इनके हाथों में पहले से मौजूद झंडों में एक रंग और हो जायेगा,
बेशक थोडा "चटख" !!!
तुम दुनिया की छोड़ो अपना ही उद्धार करो,
हर  कोई मगन है अपने में,
तुम भी कुछ अपना यार करो!!!
लेकिन क्या मेरे कहने से, परवाने शमाँ से हटते हैं,
वो भी हैं बिलकुल दीवाने "औ" दीवाने ये कहते हैं...
"हर कोई यहाँ तो अपने लिए, बस अपने लिए ही जीता है,
हाँ, अपने लिए मथकर सागर हर कोई अमृत पीता है,
पर "शिव" को देखो, तांडव कर दुष्टों का संहार किया,
जग की खातिर अमृत को तज "विष" अपने गले का हार किया!!!"
"हम अपने लिए जी गए तो क्या? हम अपने लिए मर गए तो क्या?
गर अपनी कही, क्या बात कही, कुछ औरों की भी कहने दो,
हाँ हम हैं बिलकुल दीवाने,दीवाना हम को रहने दो,
गर "शमाँ" हमारा है सपना, परवाना हम को रहने दो!!!"
उनकी ये बातें सुन गौतम, मेरे मन ने ये मान लिया,
इस  युग के "दधीचि" हैं वे सब,
ये  उस दिन मैंने जान लिया !!!
 " तुम कम्युनिस्ट हो, इसके जवाब में वो कहता था कि अगर एक अच्छा इंसान होना कम्युनिस्ट होना होता है तो मुझे इससे कोई गुरेज नहीं है। साथ ही वो कहता था कि पूरी तरह कम्युनिस्ट होना इतना आसान नहीं है।"
 विजय वर्धन उप्रेती के पोस्ट में लिखी उपरोक्त पंक्तियाँ कामरेड हेम की वैचारिक प्रतिबद्धिता और ईमानदारी  के अतिरिक्त जिस बात को दर्शाती हैं, वो है समय के साथ वामपंथ की वर्तमान सामजिक अभिव्यक्ति में एक आवश्यक बदलाव की, राजनैतिक परिद्रश्य में खो चुकी वैचारिक शक्ति और पहचान को पुनः परिभाषित करने की...जिसे समसामयिक राजनीतिक परिद्रश्य पर कविता के माध्यम से चोट करने हेतु कभी हम कहते थे ...इनके साथ हमारे साथी, छोड़ कुदाली चढ़ गए हाथी...     
अफ़सोस हम कभी नहीं मिले, उससे भी ज्यादा अफ़सोस इस बात का की मध्यवर्गीय उदासीनता की वजह से वर्त्तमान व्यवस्था इतनी निशंक हो गयी है की मानवीय अभिव्यक्ति के पालनहारों का जीना मुश्किल हो गया है, वो या तो कामरेड(अंग्रेजी शब्दकोष में मतलब देखें, पूर्वाग्रह घातक होंगे:सच्चा साथी ) हेम जो की एक व्यक्ति मात्र नहीं, वरन एक विचार हैं उन्हें अति सीमित करने का हर संभव प्रयत्न करती है, और ऐसा न होने पर दुखद परिणिति में तब्दील. जिनसे भय खा कर कुछ भी सृजनात्मक करने की हिम्मत जुटा पाना सामान्य जीवन जीने की आकांक्षा लिए हुए या इसका चुनाव किये हुए व्यक्ति के लिए मुश्किल हो जाता है,और यही सत्ता मद में लिप्त आकाओं की कमान संभाले दुराग्रहियों का जिन्होंने चाणक्य नीति का अद्ययन कुशल शासन एवं कुशल शासक प्रदान करने हेतु नहीं बल्कि अपने हितों को साधने के लिए किया है,उनका हित सध जाता है..."एक को मारो बाकी सब अपने आप ठीक हो जायेंगे"  ऐसे में मैं जब स्वयं को भी देखता हूँ तो पाता हूँ की सालों से कोकराझार, जाकर, वहां रह कर (महसूस कर के एक यथार्थ समेटे हुए ) किताब लिखने की आकांक्षा "न केवल" मासिक पारिवारिक, आर्थिक हितों के काँटों से बंधी है, बल्कि उसकी बुनियाद में "फर्जी-एनकाउन्टर" हो कर बच्चों के अनाथ और पत्नी  के आर्थिक और सामाजिक सन्दर्भों में असहाय हो जाने का निहित स्वार्थ,की, अभी तो बहुत कुछ करना है, जीना है, इस तमन्ना से जुड़ा भय भी है. 
अफ़सोस इस बात का भी है की हेम मैं तुम्हारी तरह बहादुर नहीं, जो स्वयं संकटों का मार्ग चुनते हैं, मृत्यु के भय से सही मार्ग का चुनाव करने में हिचकिचाते नहीं, मैं तुम्हारी तरह बहादुर नहीं बल्कि उन मध्यमार्गी तथकथित बुद्धिजीवितों में से एक हूँ जिनके पास बुद्धि भी है और वे "कथित रूप से" जीवित भी हैं, जो जीते रहने की आनंददायक सजा भी डर डर कर गुजार रहे हैं, श्रद्धांजलियाँ देकर और कर्त्तव्य की इतिश्री बैठकियों में भड़ास निकाल कर, और उस पर तुर्रा ये की इसी जीवन को श्रेयस्कर समझते हैं, मोर्चों पर जान देने की बजाय.श्रेय और प्रेय: में से मेरा ही चुनाव जो कभी श्रेय था बुद्धि पर पूरा जोर दे कर लिया गया,अब मुझे ही कमतर और मात्र प्रेय: लगता है...तुम्हारी तो मौत भी तुम्हारी तरह है..."विचारवान" मृतप्राय नहीं...   
कुछ जीवन सिर्फ जी लेने को जी लिए जाते हैं...(ऐसे जीवन भी हैं जो जिये ही नहीं) ऐसे ही कुछ विचार भी... सिर्फ विचार रह जाते हैं...ऐसा ही एक विचार जो दीवार पोत कर थक चुकी एक रात को एक अल्पव्यस्क साथी की मौत पर लिखा गया उसी की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही है...पूरा लिखा बहुत ढूँढा पर घर के सामान में पाती मिल नहीं रही, और मैं अब पहले के जितना उत्साही नहीं रहा...तो जितना याद है उसे ही तुम्हारे लिए लिख कर श्रद्धांजलि देना चाहूँगा...प्रिय हेम...
अच्छा हुआ की तुम नहीं नहीं रहे...
अब तुम्हें माँ के इलाज के लिए,बड़े भाई के चहरे पर कॉलेज पास करने के बाद से लगभग खो चुकी मुस्कान , 
जो अब यदा कदा ही बहुत प्रयत्न करने पर आती भी है, तो, चेहरे के खिल जाने से उत्पन्न तनाव और आंसुओं में जल्द ही खो जाती है,
तुम्हें अब मेरी तरह मन ही मन अफसोस और असमंजस की दुविधा से दो चार न होना होगा, 
पता नहीं, हंसते हंसते निकले ये आंसूं, ख़ुशी के हैं, या बहुत दिनों बाद हंसने से उत्पन्न रासायनिक परिवर्तन के???
अच्छा हुआ की तुम नहीं नहीं रहे...
तुम्हें अब पिता के, पहले से कुछ ज्यादा झुक गए कन्धों को देखकर, मन ही मन, अफसोस और असमंजस की दुविधा से दो चार न होना होगा,
की पता नहीं, ये उम्र की वजह से हैं? या माँ के अधिक बीमार हो जाने से उत्पन्न आर्थिक संक्रमण के???
अच्छा हुआ की तुम नहीं नहीं रहे...
रहा मैं, तो मैं ज़माने का चलन सीख रहा हूँ...अच्छा हुआ की तुम नहीं नहीं रहे!!!
तुम डरते नहीं और मुझे झूठ से नफ़रत है...कविता भी मैं झूठी नहीं लिख पाता,तो रहा मैं तो मैं ज़माने का चलन सीख रहा हूँ...तभी तो कई बार बुलाने पर देखो बीच में उठकर डिनर भी कर आया, पत्नी ने पूछा  कुछ परेशान दिख रहे हो, कहीं खोये हो?(कुछ संकट?) क्या बात है? बड़े चुपचाप खाना खा रहे हो? तो बुद्धिजीवी स्टाइल में उसे भी "भोकाल" देकर आया हूँ...हूँ...जाने दो तुम  नहीं समझोगी "आखिर बच्चों के लिए सिर्फ कमाना ही थोड़े है... इन्हें विरासत में सिर्फ कुछ पैसे ही देना थोड़े हमारा कर्त्तव्य है? एक बेहतर समाज और सोच भी हमें ही देनी होगी, वगैरह... वगैरह..."उसकी अजीब भाव लिए हुई नजर को ये कह कर टाल दिया की तुम्हें तो वैसे भी मैं थोडा सीरियस टाइप ही पसंद हूँ...शुरू से, और फिर आ गया...
तो भोजन से उत्पन्न विकार के वशीभूत मैं कहना चाहूँगा मित्र मुझे ईर्ष्या हो रही है तुम से ...तुम्हारी तो मौत भी विचार है... एक हम हैं हमारा जीवन भी विचारों के इर्द गिर्द रह कर विचारहीन प्रतीत होता है, मानों गहरे वैचारिक संक्रमण से ग्रसित एक आत्मा जो  कभी भी मर जा सकने वाले शरीर में कैद है...जिसका गीता के श्लोक में वर्णित अद्भुत कवच से युक्त होने की वजह से कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाता(नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणी...नैनं दहति पावक:..), हालांकि जिसका हर रोज, हर वक्त, हर जगह लगभग सच मुच का एनकाउन्टर होता है, कोई भी कर जाता है, पत्नी, बच्चे, बच्चों के स्कूल वाले , पडोसी, संगी-साथी, मित्र-सखा, सहोदर, पार्टनर, बॉस, मालिक, ऑटो वाला, रिक्शे वाला, सब्जी-वाला, घर में, बाहर, ऑफिस में, यहाँ तक की अब तो इन्टरनेट पर यानी मेल पर, ब्लॉग पर, भड़ास पर और फेसबुक में भी, मोबाइल तक में भी एस एम एस से कई बार... पर एक हमारी आत्मा है की वो जीवित होने का न केवल भान देती है , बल्कि यकीनन जीवित है भी...सिर्फ ज़माने का चलन सीख कर...तुम्हारी सुनते तो... तभी तो मैं तुम्हारे साथ वहां नहीं था, न ही तुम्हें अंतिम यात्रा या तुम्हारे घर पर नजर आया भाई श्रद्धांजलि तो नेट पर भी दी जा सकती है...
so here it goes…
“Comrades never die”, 
thy thoughts remain in the solitary land,
Followed by the others, 
the others hand,
thy are the witness to suffering of those 
who suffers for “emancipation,
thy are the ones who make 
a country an empathetic nation,
comrades never die…
comrades never die!!!
तो हेम भाई बिलेटेड श्रद्धांजलि...किसी को नहीं कहा मन में रखा हमेशा, पर तुम्हें कह देता हूँ, नेट पर है सेफ तो नहीं पर कोई बात नहीं संभाल लूँगा और अब तो अपने काफी बन्दे वहां हैं, तुम भी थोडा देखना..."लाल सलाम"  
फिर से हमने शुरू किया है सफ़र,कारवां है की अब थमता नहीं है...मौत का खौफ था सो तुम ले गए,अब ये देखेंगे की क्या बाकी है!!!
देखना है की अब क्या बाकी है... 
Few Words to make it easy:
emancipation: To free from bondage, oppression, or restraint; liberate: I have taken मुक्ति का संघर्ष 
COMRADE : An intimate friend or associate: I have taken सच्चा साथी 
लाल सलाम:equivalent to  Black Power salute: I have taken, We owe you a lot, thus love you!!!

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