Friday, January 7, 2011

"जौन फूल खिलै, "महादेवे" के चढे"

बड़ी अजीब सी बात है जबसे भड़ास पर पढ़ा है की 'फेसबुक' पर "आई हेट गाँधी " को लेकर अपने (स्वघोषित-From my side he is ours, who else will say, he dont knew me at all thats why saying "स्वघोषित" ) अमिताभ भाई भी गाँधी जो को लेकर परेशान हो रहे हैं, और स्वभाव स्वरुप हमने  प्रतिक्रिया भी कर दी, तबसे जाने क्यों एक पुराना शेर रह रह कर जेहन में कौंध जाता था...फिर प्रतिक्रिया से प्रभावित दूसरा लेख पढ़ा तो जेहन में कौंधे शेर का स्त्रोत भी उजागर हो गया, खैर अंततः  निजात पाने हेतु लिख रहा हूँ...पहले शेर   
कासिद के आते आते, ख़त इक और लिख रखूं ,
मैं जानता हूँ वो, जो लिखेंगे जवाब में !!!
खैर बात चल रही थी की अपने अमिताभ भाई भी गाँधी जो को लेकर परेशान हो रहे हैं 
ये तो वही हुआ -जौन फूल खिलै, उ "महादेवे" के चढे (यहाँ जो भी फूल खिलता है वो महादेव को चढने के लिए) यहाँ समझने लायक बात है की फूल कौन सा खिला है? और महादेव कौन हैं जिन्हें हर फूल चढ़ जाता है? और आदर्श स्थिति में क्या होना चाहिए, वर्तमान स्थिति से निजात पाने हेतु, बाकी सब अपने आप समझ आ जाने योग्य है. 
तो अमिताभ भाई कहना ये है की आप भी नाहक गाँधी जी को लेकर परेशान हो रहे हैं, जनता जनार्दन चूल्हे में मुंह झोंके आग ढूंढ रही है. 
गाँधी जी की चिंता छोड़िए, आपसे बहुत उम्मीदें हो सकती हैं समाज को, कुछ और चिंतन कीजिये, आपके ही कथनानुसार,गाँधी जी का आदर करोड़ों लोग करते हैं, राष्ट्रपिता हैं वे. 
सरकार ने "नोटों" पर उन्हें सजा रखा है, एकाधिकार है उनका, मुद्रा और सरकारी कार्यालयों में. जरा जनता जनार्दन के बारे में भी सोचो, जिसकी गांधीजी के इस देश में जहाँ एक पूर्व आई पी एस, और वर्तमान आई आई एम अध्ययनरत विशिष्ट नागरिक भी उसे गांधी जी को गरियाने हेतु विधिक कार्यवाही की चेतावनी दे रहा है. जहाँ तकरीबन हर एक "सरकारी टाइप" आदमी  चाहे वो पद पर हो या न हो गाँधी का महिमामंडन और जनता की "माँ-बहिन" का सरेमान "अपने" (पुलिसिया) तरीके से "इस्तकबाल" करने पर आमादा है, और विडम्बना ये  इनमें से किसी के खिलाफ विधिक कार्यवाही भी नहीं हो सकती. क्योंकि ये सभी विधिक कार्यवाही के विभिन्न पहलुओं और पड़ावों पर विराजमान हैं, गाँधी टोपी के साथ, किसी के सर पर है, किसी की जेब में, किसी को मिली हुई है और किसी ने खरीदी हुई.
अरे भाई मेरे देखे ये ये बेचारे भटके हुए सामान्य जन हैं, इन्हें माफ़ करो, उल्टा आपके लिए तो ये "Academic-Interest" का विषय होना चाहिए की आखिर क्यों गाँधी के देश में गाँधी को गरिया रहे हैं, ये सामान्य जन. बिना आग के धुआं उठ रहा है या फिर धुंए का श्रोत कुछ और ही है ?
खैर Let me emphasize once again, any legal attempt to purify poor, intoxicated, or perverted souls will be sheer wastage of time, energy and money. Besides that it wont be serving the actual purpose, constructive way will be you should start a group "I love Gandhi" on Facebook itself and counter misinterpretations these young brothers/sisters carrying (if its not true) about the most charismatic man of his times (if its true-I do not consider myself to be qualified enough for indulging into any argument for the purpose, so dont wanna be into any further, though...) 
अमिताभ भाई कुछ श्लोकों के माध्यम से अपनी बात को स्पष्ट करना चाहूँगा जरा गौर दें तो बेशक अभी कुछ समय की हानि होगी लेकिन बहुत समय, उर्जा और धन का अपव्यय रुकेगा भविष्य में जो समाज कार्य में ही लगेगा ऐसा मेरा मानना है... 
सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई। सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई॥
समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाईं। रबि पावक सुरसरि की नाईं
जिस प्रकार "गंगाजी में शुभ और अशुभ सभी जल बहता है, पर कोई उन्हें अपवित्र नहीं कहता। सूर्य, अग्नि और गंगाजी की भाँति समर्थ को कुछ दोष नहीं लगता॥" 
उसी प्रकार वर्तमान प्रसंग में : गाँधी जी की निन्दा करने वाले निंदा को प्राप्त होंगे, उनके खिलाफ विधिक कार्यवाही करने वाले उसमें उलझेंगे और समर्थ को कुछ दोष नहीं लगता ये मानने वाले सत्य को जान लेंगे और अन्य कर्मों को प्राप्त होंगे. 
सुरसरि जल कृत बारुनि जाना। कबहुँ न संत करहिं तेहि पाना॥
सुरसरि मिलें सो पावन जैसें। ईस अनीसहि अंतरु तैसें॥
जिस प्रकार "गंगा जल से भी बनाई हुई मदिरा को जानकर संत लोग कभी उसका पान नहीं करते। पर वही गंगाजी में मिल जाने पर जैसे पवित्र हो जाती है, ईश्वर और जीव में भी वैसा ही भेद है उसी प्रकार वर्तमान प्रसंग में जहाँ एक और नफ़रत से प्रभावित जीव हैं तो दूसरी और उनसे प्रभावित आप हो रहे हैं ऐसे में -अपने भीतर विराजमान प्रभु को पहचाने जो की हम दोनों एवं समस्त प्राणियों के भीतर एक ही है और मेरे माध्यम से तुम्हे कहना चाहते है के ये नफ़रत से भरे लोग गाँधी विचार को मदिरा की भांति भ्रम देने वाला बना सकते है, और प्रेम से भरे लोग मदिरा युक्त विचारों को भी गांधीगिरी जितना निर्मल अतः जीवों पर कृपा करें, और अपने भीतर बैठे ईश्वर और जीव में जो भेद है उस को समझें. 
अस कहि नारद सुमिरि हरि गिरिजहि दीन्हि असीस।
होइहि यह कल्यान अब संसय तजहु गिरीस॥
जिस प्रकार-नारदजी ने भगवान का स्मरण करके ऐसा कहकर पार्वती को आशीर्वाद दिया। (और कहा कि-) हे पर्वतराज! तुम संदेह का त्याग कर दो, अब यह कल्याण ही होगा 
उसी प्रकार वर्तमान प्रसंग में यदि शब्दों के उचित चुनाव न होने वजह से आपके माँ में कोई संदेह बाकी रह गया हो तो निसंदेह आपको सिर्फ संदेह का त्याग करना है. हकीम "लुकमान" जिसे खुद प्रकृति (जड़ी बूटियाँ अपने रहस्य बताती थीं वो भी संदेह का इलाज न खोज पाया) मेरा अपना मनन है, ये इलाज तुम्हारे भीतर है, और खोज बाहर जा रही है, तो भीतर झांको. हे पार्थ(अमिताभ), तुमने  गांडीव तो नियति के वशीभूत पहले से ही उठाया ही है, प्रत्यंचा चढी ही हुई है, कम से कम "सही दिशा" की तरफ मुंह तो करके खड़े हो जाओ. अहंकार को त्यागो, अपनी चोट को दूसरों को चोट पहुंचा कर कम नहीं किया जा सकता, मरहम लगाओ, दुआ मिलेगी फिर तुम्हारे जख्मों को भी शायद शुकून पहुंचे. किसी भी तरीके की कार्यवाही या बौधिक कसरत की आवश्यकता नहीं, सिर्फ क्षमा कर दो. बल्कि ये सोचो क्षमा करने का भी क्या तात्पर्य है, इस मुद्दे से जितना भला हो सकता था वो तो हो ही चुका है, अब इस चुइंगम में रस नहीं, मुंह में रखने का क्या प्रयोजन? 
जौं अस हिसिषा करहिं नर जड़ बिबेक अभिमान।
परहिं कलप भरि नरक महुँ जीव कि ईस समान॥
और अंत में जिस प्रकार-यदि मूर्ख मनुष्य ज्ञान के अभिमान से इस प्रकार होड़ करते हैं, तो वे कल्पभर के लिए नरक में पड़ते हैं। भला कहीं जीव भी ईश्वर के समान हो सकता है?॥
मेरे और तुम्हारे लिए वर्तमान प्रसंग में ये अभिमान की होड़, एक दूसरे को पराजित करने के निहितार्थ गाँधी को माध्यम बना, जनता जनार्दन को कटघरे में कर, नैतिकता का पाठ पढ़ाने की मुहिम, चाहे विधिक कार्यवाही करने की तुम्हारी धौंस हो चाहे न करने की मेरी दलील कल्पभर के लिए नरक में ले जाने को पर्याप्त है क्योंकि सच यही है की "भला कहीं जीव भी ईश्वर के समान (सर्वथा स्वतंत्र) हो सकता है? वाचारिक गुलामी की आदत है हमें चाहे हम कहें " आई हेट गाँधी" और चाहे कहें " आई लव गाँधी" दोनों ही बातों में सिर्फ प्रभावित होना ही मुख्य है और प्रभाव से युक्त मन  या मस्तिक सत्य को नहीं खोज सकता, न ही उचित निर्णय लेने की आदर्श स्थति में होता है !!!
बाकी आप समझदार हैं, बच्चों के खेल में हाथ गन्दा न कर उन्हें कीचड में घुस कर बाहर  लाने की बजाय की पानी की फुहारों का प्रबंध करें और चित्त साफ़ हो जाने बाद समझाएं की राष्ट्रपिता नहीं, राष्ट्रपति नहीं, वरन एक सामान्य व्यक्ति की निंदा हमें पतन की और धकेलती है. कुछ लोगों को यदि वर्तमान  समाज या मान्यताओं से शिकायते हैं, तो उन्हें कहें की, आओ इसे मिलजुल कर सुधारें न की और खराब करें. 
और हाँ यदि विधिक कार्यवाही, के ही इच्छुक हैं तो करें पर "गांधीगिरी" को अपने तरीके से  परिभाषित न करें आगे आप समझदार भी हैं, समर्थ भी, उचित मार्ग पर पहुंचेंगे मेरे बिना भी, किसी के बिना भी, प्रारब्ध हो ही चुका है  "समरथ को नहीं नाथ गोसाईं" 
आपके उत्तर की प्रतीक्षा नहीं वरन मिलने का इन्तजार रहेगा, जब भी आप यहाँ आयें या हम लखनऊ, शेष मिलने पर. 
जनता जनार्दन को हमसे और भी उम्मीदें हैं, हमारे वास्ते कुछ और भी हैं काम यहाँ, 
गाँधी श्रेष्ठ थे, या भ्रष्ट ये है, गौण अभी,  बहुत से छद्म गाँधी अब भी निगेहबां है यहाँ !!!
   



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