Sunday, November 7, 2010

मजनूं मस्त दीवाना


सेक्स, बाबा, पीएम, वेश्या, अफसर, मौत, मानव

यशवंत का उपरोक्त प्रयोगवादी लेख पढ़ कर कुछ विपरीत प्रतिक्रियाओं को सुना समझा और ये तय किया मीडिया नुक्कड़ पर आज की ये खबर भी कम महत्वपूर्ण नहीं है, कमोबेश हममें से प्रत्येक की ये स्थिति कभी न कभी होती ही है, या होनी है.
सूचनाओं के जगत में यथार्थ  के परे देखता हुआ ये दिमाग, संवेदनाओं के परे  झांकता हुआ ये मन, और दोनों के द्वन्द से उपजा ये व्यक्तित्व, आखिर इसकी अभिव्यक्ति का माध्यम तो तलाशेगा ही.
फिर चाहे आप इसे, "छद्म बौद्धिकता" कहें, "पागलपन," "विड्द्राल-सिंड्रोम" या "समस्याओं से घिरे व्यक्ति का मानसिक दीवालियापन" या फिर "ऐसा ही कुछ" पर मैं इसमें इत्तफाकन देख पा रहा हूँ अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम,एक जुझारू व्यक्तित्व, एक भीड़ में अकेला इंसान, और एक अपने से रूबरू होती आत्मा जो "जगत मिथ्या" और ऐसे ही कितने सिद्धांतों की धूल में अपनी छवि निहारने को बेचैन है, और साथ ही साथ "भनक" दे रही है  उसकी जो जाना नहीं गया, और जानने योग्य रहा और हम और आप हमेशा उससे भागने के उपायों में लिप्त रहे.

सन्दर्भ के लिए उपरोक्त लेख में से अंतिम कुछ पंक्तियों को नीचे 
ज्यों का त्यों लिख रहा हूँ ताकि भूमिका को आधार मिले...
और अलग अलग लोगों से एक ही बात दोहराने की एक्सपर्ट ओपिनियन  के दुःख से निजात, क्योंकि 
लोग मानेंगे नहीं बोले बिना, और एक हम हैं सुन नहीं पाते  !!!
यशवंत प्रभु लिखते हैं "दिवाली बीती जा रही है. हजार से ज्यादा मैसेज आए. जवाब कुछ एक को भी दिया या नहीं, ठीक से याद नहीं. अब औपचारिक उत्सवी संदेशों, शुभकामनाओं, बधाइयों से कोई भाव नहीं पैदा होता. पलट कर जवाब देने को भी जी नहीं चाहता. बहसों, तर्कों, घटनाओं, जीवनचर्या में भावुक संलिप्तता खत्म होती जा रही है. ये बुढ़ापे का भाव है या जवान होने का, तय नहीं कर पाता. दुनियादार के लिहाज से देखूं तो पूरी तरह बुढ़ापा तारी होने लगा है. खुद सोचता हूं तो लगता है कि अब जीवन जीना शुरू कर रहा हूं, अभी तक तो नरक भोगा है, अभी तक तो भोग किया है, अभी तक तो चेतना को घटनाओं के झंझावातों से धारधार कर पैना बनाया है. अब अलख जगा है. अब कुछ अंदर जागृत सा दिखता है लेकिन बाहर वह जब प्रकट होता है तो भाव तटस्थ वाला होता है, खुद के प्रति भी, परिवार के प्रति भी और समाज-देश के प्रति भी. खुद, परिवार, समाज, देश, दुनिया, ब्रह्मांड.... ये सारे शब्द जब मिट जाएंगे या आपस में मिलकर एक हो जाएंगे तो क्या बनेगा. वो शायद आप और हम बनेंगे, ढेर सारे लोग अलग अलग हिस्सों में, अलग अलग सोच वाले, अलग अलग रंग रूप वाले, अलग अलग प्रजाति वाले, अलग अलग चेतन रूप में. घास से लेकर हाथी तक में प्रकट होगा यह एक जागृत चेतन और सब एक दूसरे से अलग अलग स्वायत्त स्वतंत्र लेकिन एक दूसरे पर बेहद निर्भर आश्रित और संबद्ध. इस विसंगति में कैसी संगति है, इस विरोधाभाष में कैसी एकता है, यह महसूस कर पा रहा हूं. पता नहीं, आप करते हैं या नहीं. इस महसूसने के भाव को और गहरे ले जाना चाहता हूं. शायद इसीलिए गुरु की तलाश होती है. पर ऐसा गुरु मिलेगा कहां. कोई दिखे तो सुझाएं." 
हमारे उदगार हैं "प्रभु अद्भुत हैं विचार, बड़े दिनों बाद कुछ अद्भुत फिर से पढने का सौभाग्य मिला, आपके चाहने वाले और दुश्मनों की संख्या में इजाफा होता रहे, हम अपने वैचारिक मुनाफे के कारोबार में आपका हिस्सा पहुंचाते रहेंगे, इस बार का "अधिया" इस प्रकार है ...
  • विसंगति बहुत ही खूबसूरत शब्द  है,वि+संगति है, इस विरोधाभास में ही एकता नहीं है,बल्कि तमाम विसंगतियों में एकता है, अँधेरा ही रौशनी के महत्व को बढ़ाता है,रोज रात होती है तो दिन का और रात का भेद पता चलता है.
  • कोई महसूस करता है की नहीं, इससे क्या तात्पर्य? आप महसूस करके लिख रहे हैं, इतना ही बहुत है. 
  • महसूसने के भाव को और गहरे ले जाना चाहते हैं तो क्या अड़चन है, मार्ग खोज रहे हैं है तो वो बाहर की दुनिया में न मिलेगा. 
  • गुरु की तलाश विरलों को होती है, और सौभाग्यशाली हैं जिन्हें गुरु स्वयं खोज लें. 
  • सवाल ये नहीं है की ऐसा गुरु मिलेगा कहां, सवाल ये है की मिल गया तो पहचानोगे कैसे, एक लीटर के पात्र में तो एक लीटर जल ही मापा जा सकेगा.
  • किसको दिखेगा जो आप को सुझाएगा, अंधों के शहर में रौशनी का पता पूछ रहो हो.
परकाया प्रवेश नहीं करना, अपनी ही काया का एक आयाम है "विचार शरीर" जबसे "गंजा" हुआ आईने में कई बार खुद को ही पहचान नहीं पाता, पुरानी फोटो भी कई बार किसी और की लगती हैं, दोनों में जबकि हूँ मैं ही, अलग अलग आयामों में, देखता रहता हूँ, शायद कभी खुद से ये अजनबी पन की बीमारी  चली जाए, वक्त हर चोट का मरहम है, एक अनार सौ बीमार, वैध जी खुद की नब्ज ढूंढें हैं, अँधा बांटे रेवड़ी, फिर फिर अपने ही को देत, 
हम भी उम्मीद  लिए बैठे हैं, तुम भी आ  जाओ वक्त गुजरेगा !!!
अंत करने से पहले एक शेर, अचानक आ रहा है ...
"अभी जवान हो तुम क्या नमाज क्या रोजा,
अभी तो उम्र पड़ी है चलो शराब पियें."
एक और है

एक शराब थी जो "आइना" दिखाती थी,
उसे भी तंग आकर तूने "बेजा" छोड़ दिया,
तेरे चेहरे में थे जो "दाग" "अब भी कायम" हैं,
फर्क इतना है की अब मैं तुझे बताता हूँ!!!  
कुछ सवाल ऐसे होते हैं, जिनका जवाब "होश"(तथाकथित जो हमारे मायने हैं होश के, जिसमें की हम दिखते हैं होश में हैं, और हमारे मुंह से गंध भी नहीं आती ) में न ढूंढ पाओगे, और "नशा" (फिर से सतर्क रहें ये भी शब्दकोश वाला शब्द ही है) वो जो दिन पलटे पे उतर न जाए.
और अब अंत में एक आशीर्वाद, क्योंकि मैं भी तुम्हारी तरह कभी कभी खुद को "जवानी में बुढ़ापे से अभिशप्त" पाता हूँ (असल में इसमें अपना कम और अपने इष्ट मित्रों, सगे सम्बन्धियों, साथियों, मालिकों,मातहतों, प्रेमिकाओं, बच्चों, पत्नी और नियति, प्रकृति का अधिक योगदान पाता हूँ इसलिए श्रेय उन्हें ही दें)   
ईश्वर "समस्याओं" में लिप्त रखे, विचार को भी "खुराक" चाहिए
तुम्हें कुछ और चाहिए तो कहो, हमें कहना है, देने वाला कोई और ही है"  
हालांकि अंत में लिख चुका हूँ पर एक बात और कहना चाहूँगा, "योग्यता" अलग बात है, "पात्रता" भी विकसित किये जाओ, पानी ढलान पर खुद बखुद चला आएगा.
इन्तजार बारिशों का सही है, ऐ दोस्त, कम अज कम  "पेड़" लगाते रहना !!!
अपन राम तो थोडा टेढ़े हैं अभी भी, रस्सी जल गयी, पर बल अभी बाकी हैं...तो सोचते हैं  
"मजनूं  मस्त दीवाना, खुदा के पास क्यों जाये 
खुदा को गर तमन्ना हो, तो लैला बन के वो आये !!!"

तो "पार्थ" जैसा तुम चाहते थे सबको मिलाकर पटक पटक, बूझ महसूस कर एक क्रम बनाया है यदि जवाब मिले तो भूल जाना दोबारा मत पढना, यदि और सवाल खड़े हों तो बार-बार कई बार, हर रोज एक बार पढना, या जब भी आवश्यकता महसूस हों, लाभ न भी हुआ तो हानि न होगी, आजमाया हुआ नुस्खा है खास तुम्हारे लिए, बाकी लोग भी ले सकते हैं पर चिकित्सकीय परामर्श के साथ, बताई हुई मात्रा में ही, जो की हर एक के लिए अलग होगी.
और ये एकदम निःशुल्क सेवा है*
*NO HIDDEN CHARGES OR CONDITION APPLY.
दिमाग चाटने का क्या लेना, भूसा  सिर्फ लालू ही खा सकते थे, ये एक महज एक अफवाह है. 
धोखेबाजों से सावधान हमारी कोई ब्रांच नहीं है.
बचपन की गलतियों को जवानी में सुधारें, बुढ़ापा सिर्फ दिमाग का भ्रम है, हम हैं तो क्या गम है. 
एक बार सेवा का मौका दें. ग्राहक कोई नहीं फिर भी लिखा है तो, लाइन में ही आयें. 
वैसे ख़ाली हैं, पर "वेल्ला वड्डा बिज्जी" "कुत्ते को काम नहीं, उसे आराम नहीं" सिर्फ  दोस्तों का सुनाया मुहावरा  नहीं,  हकीकत हैं. 
असुविधा से हमें बचाने हेतु फ़ोन पर APPOINTMENT (अंग्रेजी शब्द लिखने के लिए क्षमा, हिंदी शब्दकोष में उपयुक्त शब्द नहीं मिला) 
मेरी पत्नी को मेरी सास ने बताया और "मैं" प्रबुद्ध हुआ आप भी लाभ लें "पैसे की अम्मा पहाड़ चढ़ती है" 
मेरी अम्मा कहती थी "इक साधे सब सधे सब साधे सब जाय", modern version of the same "सब कुछ छोड़ कर भैया, थोडा पैसा लो कमाय"

5 comments:

  1. Bada gahan aalekh hai!
    Aapka blog jagat me tahe dil se swagat!

    ReplyDelete
  2. इस नए सुंदर से चिट्ठे के साथ आपका हिंदी ब्‍लॉग जगत में स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

    ReplyDelete
  3. बहुत सुंदर लेख, आप का ब्लॉग जगत में स्वागत है...
    sparkindians.blogspot.com

    ReplyDelete